जब कोई दुनिया का सबसे ताकतवर देश कहलाने वाले अमेरिका का राष्ट्रपति बनता है, तो उसकी महत्वाकांक्षाएं भी वैश्विक स्तर की होती हैं। और अगर उस व्यक्ति का नाम डोनाल्ड ट्रंप हो जो खुद को हमेशा सबसे बड़ा, सबसे प्रभावशाली और सबसे सही मानते हैं तो फिर उसकी ख्वाहिशें भी उसी स्तर की होती हैं। ट्रंप का नाम अब एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन इस बार वजह कोई चुनाव या व्यापार समझौता नहीं, बल्कि नोबेल शांति पुरस्कार है।
ट्रंप इस पुरस्कार के लिए इतने बेताब क्यों हैं? क्या वजह है कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर उन्हें नोबेल नहीं मिला तो नॉर्वे पर टैरिफ थोप देंगे? आइए जानते हैं वो पांच बड़ी वजहें जो ट्रंप को इस पुरस्कार के लिए मचलने पर मजबूर कर रही हैं।
अमेरिकी इतिहास में जगह बनाना चाहते हैं ट्रंप
डोनाल्ड ट्रंप का सपना है कि उनका नाम अमेरिकी इतिहास के उन चुनिंदा राष्ट्रपतियों की सूची में दर्ज हो, जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिला हो। अब तक अमेरिका के केवल चार राष्ट्रपतियों को यह सम्मान मिल चुका है- टी. रूजवेल्ट, वुड्रो विल्सन, जिमी कार्टर और बराक ओबामा। ट्रंप खुद को इन दिग्गजों से कम नहीं मानते, बल्कि कई बार खुद को उनसे बेहतर बताते रहे हैं।
उनके अनुसार, उन्होंने जितना विश्व शांति के लिए किया है, उसके लिए उन्हें नोबेल मिलना तो बनता है। इसीलिए वे इस पुरस्कार को अपनी राजनीतिक यात्रा की “क्लाइमेक्स ट्रॉफी” के रूप में देख रहे हैं।
ओबामा से प्रतिद्वंद्विता बनी सबसे बड़ी प्रेरणा
डोनाल्ड ट्रंप की बराक ओबामा से तुलना कोई नई बात नहीं है। ट्रंप जब पहली बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने थे, तभी से उन्होंने ओबामा को अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मान लिया था। उन्होंने ओबामा की हर नीतियों की आलोचना की, उनकी नागरिकता पर सवाल उठाए और यहां तक कह डाला कि ओबामा को मिला नोबेल पुरस्कार अवांछित था।
लेकिन अब जब ट्रंप खुद दो बार राष्ट्रपति बन चुके हैं, तो उनके भीतर यह भावना और भी गहरी हो चुकी है कि अगर ओबामा को यह पुरस्कार मिल सकता है, तो उन्हें क्यों नहीं? कई बार ट्रंप ने सार्वजनिक मंचों से यह तक कहा कि “मुझे तो 10 सेकंड में नोबेल दे देना चाहिए!”
पाकिस्तान और इजराइल का समर्थन मिसा
ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार दिलाने की कोशिशों में सिर्फ उनकी टीम ही नहीं, कुछ अंतरराष्ट्रीय सहयोगी देश भी लगे हैं। पाकिस्तान ने तो बाकायदा उन्हें नोबेल पीस प्राइज के लिए नॉमिनेट कर दिया था। पाकिस्तान की दलील थी कि भारत-पाक तनाव के दौरान ट्रंप ने मध्यस्थता की भूमिका निभाकर युद्ध टाल दिया।
इजराइल की तरफ से भी ट्रंप को समर्थन मिला, खासतौर पर गाजा में चल रहे संघर्षों के दौरान। इजराइली प्रोफेसर अनत एलॉन बेक ने तो ट्रंप को बंधकों की रिहाई में “अद्वितीय भूमिका” निभाने के लिए नामांकित किया। ट्रंप की अंतरराष्ट्रीय छवि को गढ़ने में इन देशों की भूमिका ने उनकी उम्मीदें और आत्मविश्वास बढ़ा दिया है।
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खुद को ‘शांति निर्माता’ साबित करने की मुहिम
ट्रंप सिर्फ पुरस्कार पाने की ख्वाहिश नहीं रखते, वे पूरी दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि वे असल मायनों में “शांति के मसीहा” हैं। व्हाइट हाउस की प्रेस सेक्रेटरी कैरोलीन लीविट का कहना है कि ट्रंप ने सत्ता संभालने के बाद से हर महीने कम से कम एक शांति समझौता या युद्धविराम कराया है।
ट्रंप खुद भी दावा करते हैं कि उन्होंने कांगो-रवांडा, भारत-पाकिस्तान, सर्बिया-कोसोवो, मिस्र-इथियोपिया, और सबसे अहम, अब्राहम समझौते जैसे ऐतिहासिक कदम उठाए हैं। हालांकि इन दावों की सच्चाई और प्रभाव को लेकर कई विवाद हैं, लेकिन ट्रंप इन घटनाओं को अपने पक्ष में भुनाना चाहते हैं।
ट्रंप का खुद पर आत्मविश्वास और बड़बोलेपन
डोनाल्ड ट्रंप हमेशा से अपने आत्मविश्वास और बड़बोलेपन के लिए पहचाने जाते रहे हैं। वे खुलकर अपनी तारीफ करते हैं और जब उन्हें किसी मंच से सम्मान नहीं मिलता, तो वे तंज कसने से भी नहीं चूकते।
ट्रंप ने सोशल मीडिया पर एक बार लिखा था, “चाहे मैं रूस-यूक्रेन संकट सुलझा दूं, चाहे इजराइल-ईरान को दोस्त बना दूं, नोबेल पीस प्राइज मुझे नहीं मिलेगा, लेकिन लोगों को सब पता है और यही मेरे लिए सबसे बड़ी जीत है।”
यह बात ट्रंप की मानसिकता को दर्शाती है उन्हें नोबेल भले ही ना मिले, लेकिन वे दुनिया को यह दिखाना चाहते हैं कि असली हकदार वही हैं।
नोबेल पुरस्कार की प्रक्रिया और ट्रंप की ‘धमकी’
नोबेल शांति पुरस्कार की प्रक्रिया बेहद गोपनीय और निष्पक्ष मानी जाती है। एक फरवरी तक नामांकन भेजे जाते हैं, जिसे केवल कुछ विशेष लोग या संस्थाएं ही कर सकते हैं- जैसे विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, नोबेल विजेता, संसद सदस्य या अंतरराष्ट्रीय संगठन। कोई भी व्यक्ति खुद को नामांकित नहीं कर सकता।
नामांकन के बाद पांच सदस्यीय नोबेल समिति गहन जांच और विशेषज्ञों की सलाह से विजेता तय करती है। लेकिन ट्रंप का तरीका अलग है। उन्होंने नॉर्वे के वित्त मंत्री को फोन कर धमकी तक दे डाली कि अगर उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला, तो नॉर्वे पर भारी टैरिफ लगा देंगे।
हालांकि नोबेल समिति पर इस तरह के दबावों का कोई असर नहीं पड़ता, लेकिन ट्रंप की ये रणनीति बताती है कि वे इस सम्मान को पाने के लिए कितने बेताब हैं।
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