नेपाल की राजधानी काठमांडू की सड़कों पर इन दिनों धुआं, आंसू गैस और आक्रोश की तस्वीरें आम हो गई हैं। GEN-Z आंदोलन ने देश की राजनीति को हिला कर रख दिया है। सोशल मीडिया से शुरू हुआ यह विरोध प्रदर्शन अब लोकतंत्र की नींव तक पहुंच चुका है। इसी बीच जब प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया, तो सवाल उठने लगा कि क्या अब नेपाल की कमान सेना संभालेगी? और सबसे बड़ा सवाल कि जब संकट गहराया, तब सेना प्रधानमंत्री ओली को बचाने क्यों नहीं आई?
जनरल सिगडेल का वीडियो मैसेज
नेपाल के सेना प्रमुख जनरल अशोक राज सिगडेल का मंगलवार शाम को जारी वीडियो संदेश सबके लिए चौंकाने वाला था, लेकिन उनके शब्दों में चिंता भी झलक रही थी।
अपने 2 मिनट 40 सेकंड के संदेश में उन्होंने साफ कहा, “यह वक्त देश को जोड़ने का है, तोड़ने का नहीं। प्रदर्शन को बातचीत के जरिए सुलझाया जा सकता है।” उन्होंने नागरिकों से शांति बनाए रखने की अपील की और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पर गंभीर खेद जताया।
लेकिन क्या यह सिर्फ एक औपचारिक अपील थी? या इसके पीछे कोई रणनीतिक संदेश छिपा है?
प्रदर्शन में क्यों नहीं उतरी सेना?
जब प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति भवन, सिंह दरबार, सुप्रीम कोर्ट और नेपाल की संसद तक पहुंच गए, तब हर किसी की निगाहें इस बात पर टिकी थीं कि सेना कब मोर्चा संभालेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सूत्रों के मुताबिक, सेना एक बेहद कठिन निर्णय के मुहाने पर खड़ी थी कि जनता का साथ दे या सत्ता का? अगर सेना प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सख्ती करती, तो कई बेगुनाहों की जान जा सकती थी। इससे न केवल सेना की लोकप्रियता और विश्वसनीयता पर आंच आती, बल्कि उसे एक ‘तानाशाही ताकत’ के रूप में भी देखा जाता।
यही कारण था कि सेना ने सोच-समझकर तटस्थता बनाए रखने का फैसला लिया।
जब हालात बेकाबू हुए, तो पीछे नहीं हटी सेना
हालांकि, जब सोमवार की रात हिंसा प्रधानमंत्री और कैबिनेट के नेताओं तक पहुंच गई और कई जगह जान का खतरा सामने आया, तब सेना ने हस्तक्षेप किया। रिपोर्ट्स के अनुसार, आर्मी ने मानवीय आधार पर हस्तक्षेप करते हुए कई नेताओं को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया।
लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या यह बहुत देर से किया गया? और क्या इससे जनता का गुस्सा शांत होगा?
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क्या सेना अब शासन संभालेगी?
अब यह चर्चा तेज हो गई है कि अगर राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है, तो क्या नेपाल की सेना टेक्नोक्रेटिक गवर्नेंस या संविधानिक देखरेख में देश का संचालन संभाल सकती है?
हालांकि जनरल सिगडेल ने अभी तक ऐसी किसी भी मंशा का संकेत नहीं दिया है, लेकिन राजनीतिक हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं, उसमें सेना की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
नेपाल का इतिहास भी यही बताता है जब-जब देश में राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ी, सेना ने बैकअप रोल जरूर निभाया।
ओली को क्यों नहीं मिली सेना की मदद?
यह सवाल सबसे ज्यादा परेशान करने वाला है कि जब प्रधानमंत्री ओली संकट में थे, तो सेना ने खुलकर मदद क्यों नहीं की?
इसका जवाब नेपाल की राजनीति में छिपा है। ओली को लंबे समय से चीन समर्थक नेता माना जाता रहा है, और उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी और नीतिगत असफलताओं के गंभीर आरोप लगे हैं।
सेना एक राष्ट्रीय संस्था है, जो किसी एक दल या व्यक्ति से नहीं जुड़ी होती। यदि वह खुलकर ओली का समर्थन करती, तो उसे भी सत्ता का पक्षधर मान लिया जाता जो कि जनसंघर्ष के बीच बहुत खतरनाक होता।
क्या श्रीलंका और बांग्लादेश जैसा हालात है?
नेपाल की स्थिति काफी हद तक श्रीलंका (2022) और बांग्लादेश (2024) जैसे हालात की याद दिलाती है। वहां भी जनता ने सत्ता के खिलाफ सड़क पर उतरकर नेताओं को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था।
इन आंदोलनों में भी युवाओं की भूमिका अहम थी, और वहां की सेनाओं ने तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जब तक कि स्थिति पूरी तरह हाथ से नहीं निकल गई। नेपाल में भी यही पैटर्न दोहराया जा रहा है।
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