Premanand Vs Rambhadracharya: भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में गुरु-शिष्य, संत-महात्माओं का स्थान हमेशा उच्च रहा है। वे केवल पूजा-पाठ या प्रवचन तक सीमित नहीं होते, बल्कि समाज के मार्गदर्शक भी माने जाते हैं। ऐसे में अगर दो प्रसिद्ध संतों के बीच वैचारिक टकराव हो जाए, तो वह चर्चा का विषय बन जाता है। हाल ही में जगद्गुरु रामभद्राचार्य और प्रेमानंद महाराज के बीच ऐसा ही एक विवाद सामने आया, जिसने सोशल मीडिया से लेकर जन-जन तक बहस छेड़ दी।
कैसे शुरू हुआ यह वैचारिक टकराव?
विवाद की शुरुआत जगद्गुरु रामभद्राचार्य की एक टिप्पणी से हुई, जिसमें उन्होंने प्रेमानंद महाराज को संस्कृत बोलने की चुनौती दी। उन्होंने कहा कि प्रेमानंद संस्कृत का एक अक्षर भी बोलकर दिखाएं। यह बात जैसे ही इंटरनेट पर आई, लोगों के बीच प्रतिक्रिया की बाढ़ आ गई। किसी ने इसे गुरु-शिष्य की मर्यादा के खिलाफ बताया, तो कुछ ने रामभद्राचार्य के ज्ञान की प्रशंसा की।
बाद में रामभद्राचार्य ने सफाई देते हुए कहा कि उनका उद्देश्य किसी को अपमानित करना नहीं था, बल्कि हर हिंदू को संस्कृत अध्ययन के लिए प्रेरित करना था। उन्होंने प्रेमानंद महाराज को “पुत्र तुल्य” कहकर विवाद को शांत करने की कोशिश भी की, लेकिन यह बात लोगों के दिलों में घर कर चुकी थी।
रामभद्राचार्य: ज्ञान और तपस्या का संगम
जगद्गुरु रामभद्राचार्य का जीवन उन लोगों के लिए प्रेरणा है, जो सोचते हैं कि कोई कमी उन्हें जीवन में पीछे कर सकती है। दो महीने की उम्र में दृष्टि खोने के बाद भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी। आठ साल की उम्र में ही उन्होंने रामचरितमानस को कंठस्थ कर लिया था, और आगे चलकर संस्कृत व्याकरण में शास्त्री और आचार्य की डिग्री हासिल की।
1974 में वे वाराणसी के सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के टॉपर रहे। इसके बाद उन्हें विश्वविद्यालय ने सभी विषयों का आचार्य घोषित किया। उनकी विद्वता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे 22 भाषाएं बोल सकते हैं और 80 से अधिक ग्रंथों की रचना कर चुके हैं। उन्होंने चित्रकूट में दिव्यांगों के लिए एक विश्वविद्यालय भी स्थापित किया, जो आज भी कई जीवन को दिशा दे रहा है।
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प्रेमानंद महाराज: भक्ति और समर्पण की मिसाल
प्रेमानंद महाराज का जीवन पढ़ाई में आगे न होने के बावजूद लाखों दिलों को छू लेने वाला है। कानपुर के अखरी गांव से आए प्रेमानंद, जिनका असली नाम अनिरुद्ध कुमार पांडेय है, सिर्फ आठवीं तक पढ़े हैं। लेकिन अध्यात्म और भक्ति में उनकी गहराई इतनी प्रबल है कि आज वे देश के सबसे लोकप्रिय संतों में से एक हैं।
कहा जाता है कि नौवीं कक्षा में पहुँचते ही उन्होंने संन्यास लेने का फैसला कर लिया और एक रात घर छोड़कर चले गए। उनकी प्रसिद्धि का कारण उनका भक्तिभाव, विनम्रता और सहज संवाद शैली है। वे शास्त्रों का उच्चारण भले शुद्ध संस्कृत में न करें, लेकिन उनकी वाणी आम लोगों के दिलों को छू जाती है।
ज्ञान बनाम भक्ति: कौन है अधिक योग्य?
यह सवाल हाल के विवाद का केंद्र बन गया है- क्या एक संत के लिए शास्त्रों का ज्ञान ज़रूरी है, या फिर भक्ति और सेवा ही सर्वोपरि हैं? रामभद्राचार्य संस्कृत और वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हैं, जबकि प्रेमानंद महाराज सरल भाषा में लोगों को ईश्वर से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं।
यह तुलना ठीक वैसी ही है जैसे कोई सूर्य और चंद्रमा में तुलना करने लगे। दोनों का अपना अलग महत्व है। रामभद्राचार्य गहराई से ज्ञान के माध्यम से लोगों को जोड़ते हैं, जबकि प्रेमानंद भक्ति और प्रेम के माध्यम से। एक विद्वत्ता की मिसाल हैं, तो दूसरे समर्पण की।
संस्कृत का सवाल या संत की सादगी?
रामभद्राचार्य ने अपने बयान में संस्कृत के महत्व पर जोर दिया, लेकिन जब बात प्रेमानंद महाराज जैसे संतों की होती है, तो भाषा की गहराई नहीं, भावनाओं की ऊंचाई देखी जाती है। संत वही होता है जो जन-जन को भगवान से जोड़ सके भले ही वो संस्कृत में बोले या किसी और भाषा में।
इस विवाद ने एक बार फिर ये प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या केवल डिग्रियां और भाषाएं ही किसी संत की पहचान होती हैं? शायद नहीं। संत वही है जो समाज को दिशा दे, और इसमें दोनों ही संतों की अपनी-अपनी भूमिका है।
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