नई दिल्ली: जब देश की खेती, किसान और संस्कृति से जुड़ा सवाल हो, तब कोई भी समझौता सस्ता नहीं होता। भारत और अमेरिका के बीच हाल ही में व्यापार को लेकर जो तनातनी देखने को मिली, वह सिर्फ एक आर्थिक मसला नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा गहरा और संवेदनशील मुद्दा है। अमेरिका ने भारत पर कुल 50% टैरिफ लगाने की घोषणा की है, जो कि अब तक का सबसे ज्यादा दर है। लेकिन इस टैरिफ की वजह केवल व्यापार घाटा नहीं, बल्कि भारत का अपने मूल्यों और किसानों के हितों पर अडिग रहना भी है।
भारत एक ऐसा देश है जहां गाय को मां का दर्जा दिया जाता है, और दूध एक पवित्र आहार के रूप में देखा जाता है। अमेरिका चाहता था कि उसके डेयरी उत्पाद जैसे दूध, घी और पनीर भारत में बेचे जा सकें, लेकिन भारत सरकार ने इससे साफ इनकार कर दिया। इसका एक बड़ा कारण है कि अमेरिका में डेयरी गायों को मांसाहारी आहार दिया जाता है, जिसमें जानवरों की हड्डियों से बने एंजाइम जैसे रैनेट शामिल होते हैं।
भारत में इस तरह के दूध को ‘नॉन-वेज दूध’ माना जाता है, जो करोड़ों भारतीयों की आस्था, परंपरा और खानपान की आदतों से टकराता है। भारत में करोड़ों छोटे किसान डेयरी से अपनी आजीविका चलाते हैं, और विदेशी दूध के आगमन से उनकी रोजी-रोटी खतरे में पड़ सकती है। इसलिए भारत सरकार ने न केवल धार्मिक भावना का सम्मान किया, बल्कि देशी किसानों की भी ढाल बनकर खड़ी हो गई।
मॉडिफाइड फसलों पर भारत की सख्ती
अमेरिका केवल डेयरी ही नहीं, बल्कि कृषि उत्पादों पर भी दबाव बना रहा था। वह चाहता था कि उसके GMO यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें जैसे गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन भारत में खुले बाज़ार में बेचे जा सकें। लेकिन भारत ने यहां भी साफ शब्दों में मना कर दिया।
भारत की नीति स्पष्ट है खेती का भविष्य देश के किसानों के हाथ में होना चाहिए, न कि विदेशी कंपनियों के पास। GMO फसलों पर वैज्ञानिक बहस के साथ-साथ स्वास्थ्य और पर्यावरण को लेकर गंभीर आशंकाएं भी हैं। भारत में फिलहाल सिर्फ कपास को छोड़कर किसी भी GMO फसल को अनुमति नहीं मिली है। अगर भारत अमेरिका की बात मान लेता, तो देश की खाद्य प्रणाली और बीजों पर विदेशी कंपनियों का नियंत्रण बढ़ सकता था, जिससे किसान उनकी शर्तों पर खेती करने को मजबूर हो जाते।
कई देश अमेरिका के सामने नहीं झुके
भारत अकेला देश नहीं है जिसने अमेरिकी दबाव के सामने सिर झुकाने से इनकार किया। दक्षिण कोरिया, कनाडा, स्विट्जरलैंड और आइसलैंड जैसे विकसित और मजबूत देश भी अपने किसानों की सुरक्षा और सांस्कृतिक मूल्यों को पहले रखते हैं।
दक्षिण कोरिया ने अपने चावल और बीफ मार्केट को अमेरिका के लिए नहीं खोला। मैड काउ डिजीज जैसे स्वास्थ्य खतरों को देखते हुए कोरिया ने 30 महीने से ज्यादा उम्र वाले मवेशियों का बीफ आयात करने पर प्रतिबंध लगा रखा है। बावजूद इसके, वह अमेरिका से अरबों डॉलर का गोमांस खरीदता है, लेकिन अपने लोगों की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं करता।
कनाडा में सप्लाई मैनेजमेंट सिस्टम लागू है, जिसमें किसान सिर्फ उतना ही उत्पादन करते हैं जितनी बाजार में जरूरत होती है। इससे उन्हें अच्छा दाम मिलता है और विदेशी उत्पादों को देश में घुसने नहीं दिया जाता। यहां कुछ उत्पादों पर 200 से 300% तक का आयात शुल्क लगाया जाता है, जिससे स्थानीय उत्पादकों को नुकसान न हो।
स्विट्जरलैंड और आइसलैंड जैसे छोटे लेकिन जागरूक देशों ने भी अमेरिका की बात नहीं मानी। स्विट्जरलैंड अपनी खेती और पर्यावरण को लेकर बेहद सजग है। यहां 25% से ज्यादा खेती डेयरी पर निर्भर है, और सरकार खुद किसानों को समर्थन देती है। आइसलैंड भी अपने कृषि क्षेत्र को विदेशी कंपनियों से बचाए रखने के लिए हाई टैक्स और सब्सिडी की नीति अपनाता है।
भारत का रास्ता कठिन जरूर, लेकिन सही है
भारत का अमेरिका के साथ समझौता न कर पाना भले ही अल्पकालिक व्यापार घाटा दे, लेकिन दीर्घकाल में यह निर्णय देश की खाद्य सुरक्षा, सांस्कृतिक मूल्य और किसानों की आज़ादी के लिए अहम है। अमेरिका द्वारा लगाया गया 50% टैरिफ भारत के लिए झटका जरूर है, लेकिन यह उस नीति का हिस्सा है जो सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि अपने देशवासियों की भावना, आस्था और हक के लिए लड़ी जा रही है।
आज जब दुनिया भर के देश अपने हितों की रक्षा के लिए अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश के सामने झुकने से इनकार कर रहे हैं, भारत ने भी यह दिखा दिया है कि वह अपने किसानों, संस्कृति और पर्यावरण के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है।
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