‘टैरिफ का मसला सुलझाओ, तभी बात होगी…’ ट्रंप का भारत से ट्रेड डील पर बातचीत से इनकार, Video

Donald Trump India Tariff Controversy
Donald Trump India Tariff Controversy

दुनिया की दो बड़ी लोकतांत्रिक ताकतें भारत और अमेरिका बीते कुछ वर्षों में रणनीतिक साझेदारी के नए आयामों तक पहुंची हैं। लेकिन अब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयानों और फैसलों के बाद यह रिश्ता तनाव के नए दौर में दाखिल होता दिख रहा है।

ट्रंप ने हाल ही में एक बड़ा बयान देकर सभी को चौंका दिया, जिसमें उन्होंने भारत के साथ किसी भी तरह की ट्रेड डील पर बातचीत करने से इनकार कर दिया। उनका साफ कहना है, “पहले टैरिफ का मसला सुलझाओ, तभी बात होगी।” ये शब्द न सिर्फ आर्थिक मोर्चे पर गंभीर संकेत दे रहे हैं, बल्कि दोनों देशों के संबंधों पर भी असर डाल सकते हैं।

जब टैरिफ बन गया रिश्तों की दीवार

टैरिफ यानी सीमा शुल्क जिसे अक्सर देशों के बीच व्यापार को संतुलित करने के लिए लगाया जाता है अब भारत और अमेरिका के रिश्तों में खटास की बड़ी वजह बनता जा रहा है।

ट्रंप ने भारत पर कुल मिलाकर 50% टैरिफ लगाने का ऐलान कर दिया है। 30 जुलाई को 25% टैरिफ लगाया गया था, जो 7 अगस्त से लागू हो चुका है। इसके बाद 6 अगस्त को एक और कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर करके उन्होंने भारत पर अतिरिक्त 25% शुल्क लगाने का फैसला लिया, जो 27 अगस्त से प्रभावी होगा।

ट्रंप का तर्क है कि भारत रूस से तेल खरीद रहा है और यही पैसा रूस यूक्रेन पर हमला करने के लिए हथियारों पर खर्च कर रहा है। अमेरिका की यह नाराजगी सिर्फ कूटनीतिक नहीं, बल्कि अब आर्थिक रूप से भी भारत पर बोझ बनती जा रही है।

भारत को बताया ‘टैरिफ का महाराजा’

अमेरिकी सरकार के कड़े तेवर सिर्फ ट्रंप तक सीमित नहीं रहे। उनके प्रमुख सलाहकार पीटर नवारो ने तो भारत को “टैरिफ का महाराजा” तक कह दिया।

नवारो का आरोप है कि भारत अमेरिकी सामानों पर दुनिया में सबसे ज्यादा टैरिफ और गैर-टैरिफ प्रतिबंध लगाता है, जिससे अमेरिकी प्रोडक्ट्स को भारतीय बाजार में घुसने में काफी मुश्किल होती है।

इसके साथ ही उन्होंने कहा कि भारत अमेरिकी डॉलर से रूसी तेल खरीदता है, और फिर वही डॉलर रूस के हथियारों में तब्दील हो जाते हैं। ऐसे में अमेरिकी टैक्सपेयर्स को यूक्रेन की सुरक्षा के लिए हथियार भेजने पड़ते हैं जो कि नवारो के मुताबिक “गलत गणित” है।

बातचीत के दरवाज़े अभी बंद नहीं हुए हैं

हालांकि ट्रंप का रुख कड़ा है, लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने स्थिति को थोड़ा संभालने की कोशिश की है। 7 अगस्त की रात एक बयान जारी कर विभाग ने कहा कि भारत अमेरिका का रणनीतिक साझेदार है और बातचीत का रास्ता अब भी खुला है।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता टॉमी पिगॉट ने कहा, “अमेरिका भारत के साथ खुली और ईमानदार बातचीत कर रहा है। टैरिफ के मुद्दे पर मतभेद जरूर हैं, लेकिन हम इन्हें सीधे संवाद के ज़रिए सुलझाना चाहते हैं।”

यह बयान इस बात की तस्दीक करता है कि भले ही ट्रंप प्रशासन में सख्ती दिख रही हो, लेकिन अमेरिका की नीति भारत के साथ संबंधों को पूरी तरह तोड़ने की नहीं है।

सेकेंडरी सैंक्शंस की तलवार लटकी

ट्रंप ने जहां भारत पर सीधे तौर पर टैरिफ की बमबारी की है, वहीं अब उन्होंने सेकेंडरी सैंक्शंस की चेतावनी भी दे दी है।

इसका मतलब यह है कि अमेरिका सीधे भारत पर नहीं, बल्कि उन कंपनियों और बैंकों पर कार्रवाई करेगा जो रूस से तेल खरीद में भारत की मदद कर रहे हैं।

ट्रंप ने साफ शब्दों में कहा, “अभी तो सिर्फ 8 घंटे हुए हैं, बहुत कुछ बाकी है। बहुत सारे सेकेंडरी सैंक्शंस आने वाले हैं।”

इस बयान से संकेत मिलता है कि आने वाले समय में भारत के व्यापारिक हित और भी ज्यादा दबाव में आ सकते हैं।

भारत-अमेरिका व्यापार समझौते की राह कठिन

भारत और अमेरिका के बीच अब तक बाइलेटरल ट्रेड एग्रीमेंट (BTA) पर 5 राउंड की बातचीत हो चुकी है। छठा राउंड 25 अगस्त को भारत में प्रस्तावित था, लेकिन अब ट्रंप के बयान के बाद इस बातचीत पर संशय के बादल मंडराने लगे हैं।

दोनों देश सितंबर-अक्टूबर तक ट्रेड एग्रीमेंट्स के पहले चरण को अंतिम रूप देने की दिशा में बढ़ रहे थे। इसके तहत एक अंतरिम व्यापार समझौता भी तैयार किया जा रहा था, ताकि धीरे-धीरे पूरी ट्रेड डील को लागू किया जा सके।

लेकिन अब जिस तरह से टैरिफ का विवाद भड़क गया है, उससे इन प्रयासों पर विराम लग सकता है। खासकर तब, जब अमेरिका खुलेआम यह कह रहा है कि भारत का रूसी तेल खरीदना ‘अनैतिक’ है।

भारत की स्थिति: ऊर्जा सुरक्षा पहले

भारत का रुख इस पूरे मसले में बेहद स्पष्ट रहा है। भारत ने कई बार कहा है कि उसकी ऊर्जा आवश्यकताएं उसके राष्ट्रीय हितों से जुड़ी हैं।

रूस से सस्ता तेल खरीदना भारत के लिए सिर्फ एक रणनीतिक फैसला नहीं, बल्कि एक आर्थिक ज़रूरत भी है। विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते भारत को सस्ते स्रोतों से ऊर्जा चाहिए, ताकि आम जनता पर महंगाई का बोझ न बढ़े और देश की विकास गति बनी रहे।

भारत का यह तर्क वैश्विक मंचों पर कई बार रखा गया है, और उसमें कहीं न कहीं नैतिक व आर्थिक सच्चाई दोनों झलकती है।

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