नई दिल्ली: दुनिया में शांति की बात करना आसान है, लेकिन जब वही देश जो खुद को “लोकतंत्र और शांति का रक्षक” कहता है, जंग के मैदान में हथियारों की बारिश करने लगे, तो सवाल उठते हैं। यह कहानी सिर्फ हथियारों की नहीं, बल्कि दोहरे मापदंडों की है।
एक तरफ अमेरिका लगातार रूस-यूक्रेन युद्ध को ‘दुखद’ और ‘अमानवीय’ बताता है, शांति की अपील करता है, और दुनिया से युद्ध को खत्म करने की गुहार लगाता है। लेकिन दूसरी ओर, वही अमेरिका अरबों डॉलर के हथियार, ड्रोन, टैंक, मिसाइल और फंडिंग के जरिए इस जंग को लंबे समय तक खींचने में खुद भागीदार बन गया है।
और जब भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए रूस से सस्ता तेल खरीदता है, तो वही अमेरिका उसे ‘युद्ध को पोषित करने’ का दोषी ठहराता है। सवाल ये है- क्या सिर्फ हथियारों से किसी युद्ध को बढ़ावा नहीं मिलता?
अमेरिका खुद हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर
जब रूस ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर आक्रमण किया, तो पूरी दुनिया सन्न रह गई। लेकिन इस युद्ध का सबसे बड़ा समर्थक बनकर जो देश सामने आया, वह था अमेरिका। शुरुआती दिनों से ही अमेरिका ने न सिर्फ यूक्रेन का नैतिक समर्थन किया, बल्कि हथियारों, पैसों और खुफिया जानकारी के ज़रिए उसे मज़बूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अब तक अमेरिका यूक्रेन को कुल $175 अरब डॉलर (यानी 15.34 लाख करोड़ रुपये) की सहायता दे चुका है। इसमें से करीब $128 अरब डॉलर सीधे यूक्रेनी सरकार को दिए गए हैं, न केवल सैन्य खर्च के लिए, बल्कि आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी।
यही नहीं, अमेरिका ने अपने निजी हथियार भंडार से $31.7 अरब डॉलर के हथियार और युद्ध सामग्री यूक्रेन को भेजे हैं। यह सब कुछ उस समय में हो रहा है जब अमेरिका खुद आर्थिक चुनौतियों, बेरोज़गारी और सामाजिक असंतोष से जूझ रहा है।
हथियारों की लिस्ट नहीं, युद्ध का प्लान लगता है
यूक्रेन को अमेरिका ने जो सैन्य सहायता दी है, वह किसी साधारण मदद की तरह नहीं, बल्कि एक सुनियोजित युद्ध अभियान जैसी लगती है।
एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल से लेकर उन्नत रडार सिस्टम, पैट्रियट एयर डिफेंस से लेकर NASAMS मिसाइलें, HIMARS रॉकेट सिस्टम से लेकर 3,000 स्टिंगर मिसाइलें क्या नहीं भेजा अमेरिका ने?
युद्ध की ज़मीन पर चलने वाले टैंक, बख्तरबंद वाहन, फाइटिंग व्हीकल, टोइंग ट्रक, फ्यूल टैंकर, एम्बुलेंस, इलाज के उपकरण, और यहां तक कि 20 Mi-17 हेलीकॉप्टर और ड्रोन सिस्टम भी अमेरिका ने यूक्रेन को थमा दिए।
जिस तेजी से और जिस पैमाने पर ये सहायता दी गई है, वह दर्शाता है कि अमेरिका न केवल इस युद्ध को रोकना नहीं चाहता, बल्कि इसकी लौ को बनाए रखना चाहता है चाहे उसके पीछे कोई रणनीतिक लक्ष्य हो या हथियार उद्योग का हित।
भारत को तेल गलत, लेकिन यूक्रेन को हथियार ठीक?
अब ज़रा इस विरोधाभास को देखिए। भारत जब रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदता है ताकि देश के आम नागरिकों को राहत मिल सके, तो अमेरिका को यह बात नागवार गुज़रती है। अमेरिका इसे “रूस की वॉर मशीन को फंड करना” कहता है और भारत पर 50% का टैरिफ लगा देता है।
ये वही अमेरिका है जो पहले ही भारत पर 25% टैरिफ थोप चुका है।
क्या एक संप्रभु देश को अपनी ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए अपने हित में फैसला लेना भी नहीं चाहिए?
वहीं दूसरी ओर, अमेरिका खुद अरबों डॉलर के हथियार यूक्रेन को देता है, जिनसे खून-खराबा और विनाश ही होता है- क्या यह ‘शांति के समर्थन’ का तरीका है?
क्या यह वही नीति है जिसका पालन कर अमेरिका खुद को वैश्विक नेता कहता है?
रूस की ‘वॉर इकॉनमी’ और अमेरिका-नाटो की बेचैनी
इस पूरे युद्ध में अमेरिका और नाटो का रुख सिर्फ हथियारों तक सीमित नहीं रहा। नाटो के पास 32 देश, 3.4 मिलियन सैनिक, 22,377 एयरक्राफ्ट और 11,495 टैंक हैं, फिर भी यूक्रेन को रूस से बचा नहीं पा रहे।
दरअसल, रूस की वॉर इकॉनमी ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि रूस जितना सैन्य उत्पाद 3 महीने में बना लेता है, उतना अमेरिका और नाटो साल भर में नहीं बना पाते।
इसका मतलब साफ है- मैदान में लड़ाई यूक्रेन की हो रही है, लेकिन रणनीति और हथियार अमेरिका और नाटो से संचालित हो रहे हैं।
क्या यही है शांति पॉलिसी?
दुनिया को शांति का उपदेश देने वाला अमेरिका, खुद सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता बन चुका है। एक तरफ वह युद्ध को ‘निंदनीय’ और ‘अस्वीकार्य’ बताता है, वहीं दूसरी तरफ, ड्रोन, मिसाइल, टैंक, और एयर डिफेंस सिस्टम की बौछार से यूक्रेन को भर देता है।
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