खत्म हो गई कीड़ों की 72% आबादी! जलवायु परिवर्तन बन रहा खलनायक, धरती पर क्या होगा इस बदलाव का असर?

खत्म हो गई कीड़ों की 72% आबादी! जलवायु परिवर्तन बन रहा खलनायक, धरती पर क्या होगा इस बदलाव का असर?

हम जब भी कीड़ों की बात करते हैं, तो अक्सर उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं या परेशान करने वाला जीव समझ बैठते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये छोटे-छोटे जीव ही धरती के जीवन तंत्र को संभाले हुए हैं? आज जब हम जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और जैव विविधता के नुकसान की बातें कर रहे हैं, तो एक बहुत ही गंभीर खतरा चुपचाप हमारी आंखों से ओझल होता जा रहा है- कीड़ों की तेजी से घटती आबादी।

कीड़े न केवल फूलों से फूलों तक पराग ले जाकर पॉलिनेशन करते हैं, बल्कि वे मिट्टी में जीवन बनाए रखने, पौधों को उगने में मदद देने, और यहां तक कि पक्षियों व जानवरों की खाद्य श्रृंखला को बनाए रखने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी की कई जरूरतें जैसे अनाज, फल, सब्जियां इन्हीं पर निर्भर करती हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अब ये कीड़े तेजी से गायब हो रहे हैं, और वह भी सिर्फ शहरों या खेतों में नहीं, बल्कि उन जगहों पर भी जहां इंसानों की पहुंच बहुत कम है।

पहाड़ों में भी गूंज रही है खतरे की आवाज़

हाल ही में अमेरिका की नॉर्थ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कोलोराडो की ऊंचाई वाली पहाड़ियों में 20 सालों तक कीड़ों की आबादी पर नजर रखी। यह क्षेत्र न शहरीकरण से प्रभावित है, न वहां कोई फैक्ट्रियां हैं, न ही इंसानों की ज्यादा आवाजाही। इसके बावजूद यहां उड़ने वाले कीड़ों की संख्या में 72% तक की गिरावट दर्ज की गई। यह आंकड़ा किसी चेतावनी से कम नहीं है।

सोचिए, अगर इतनी शांत और शुद्ध जगह पर भी कीड़ों की आबादी इतनी तेजी से घट रही है, तो शहरों और औद्योगिक इलाकों का क्या हाल होगा? यह बताने की जरूरत नहीं कि खतरा अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे चुका है।

असली खलनायक: जलवायु परिवर्तन

इस स्टडी की सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि कीड़ों की इस गिरती आबादी का कारण कोई मानवीय गतिविधि नहीं थी। न खेती, न कीटनाशक, न शहरीकरण। फिर भी कीड़ों की संख्या हर साल औसतन 6.6% की दर से घटती रही। जब वैज्ञानिकों ने इसकी वजह खोजी, तो सामने आया कि बढ़ती गर्मी यानी जलवायु परिवर्तन इसका मुख्य कारण है।

गर्मियों के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि ने कीड़ों के जीवन चक्र को बाधित कर दिया। उनके प्रजनन की प्रक्रिया धीमी हो गई, और बहुत से कीड़े समय से पहले मरने लगे। इसका सीधा मतलब है कि अब ग्लोबल वॉर्मिंग सिर्फ बर्फ पिघलाने या मौसम बदलने तक सीमित नहीं है, यह धरती की सबसे बुनियादी कड़ियों को भी तोड़ने लगा है।

भारत और दुनिया के लिए खतरे की घंटी

भारत जैसे देश, जहां कृषि प्रणाली पूरी तरह से कीट परागण (इंसक्ट पॉलिनेशन) पर निर्भर है, के लिए यह स्थिति और भी चिंताजनक है। यहां के किसान फसलों की उपज के लिए मधुमक्खियों और दूसरे कीड़ों पर निर्भर रहते हैं। अगर यही हाल रहा, तो आने वाले समय में फसलें प्रभावित होंगी, जंगलों की सेहत बिगड़ेगी और पानी का प्राकृतिक चक्र भी बाधित हो सकता है।

यह सिर्फ जैव विविधता की बात नहीं रही। यह हमारी थाली, हमारी सांसें और हमारे बच्चों के भविष्य की बात है।

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