नई दिल्ली: भारत ने 26 जुलाई 1999 को आधिकारिक रूप से कारगिल युद्ध में विजय की घोषणा की। लेकिन इस जीत के पीछे सिर्फ रणभूमि में लड़े गए पराक्रम की ही नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक मोर्चों पर लड़ी गई एक जटिल कूटनीतिक जंग की भी अहम भूमिका थी। इस लड़ाई में जहां एक ओर भारत ने पाकिस्तान की साज़िश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उजागर किया, वहीं उसे अमेरिका से अपेक्षित मदद नहीं मिली। इसके उलट इजराइल एक चुपचाप लेकिन निर्णायक भूमिका निभाने वाला सहयोगी बनकर उभरा।
2 जुलाई 1999 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय में एक विशेष कॉल आया। फोन पर अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन थे। उनका मकसद था—दो परमाणु संपन्न राष्ट्रों के बीच जारी युद्ध को रोकने की कोशिश। लेकिन वाजपेयी ने साफ कह दिया कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना को भारत के अधिकृत क्षेत्रों से पूरी तरह नहीं हटाता, तब तक किसी तरह की बातचीत का कोई सवाल ही नहीं उठता।
क्लिंटन ने अगले ही दिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बात की, जिन्होंने अमेरिका आकर सहायता मांगने की इच्छा जताई। क्लिंटन ने वहीं वाजपेयी की शर्तें दोहराईं: भारत की ज़मीन छोड़ो, तभी कोई बात संभव है।
अमेरिका की आरंभिक तटस्थता और भारत की कूटनीति
जनवरी से अप्रैल 1999 के बीच पाकिस्तान ने भारतीय क्षेत्र में चुपचाप घुसपैठ की थी। LoC के भीतर 4 से 10 किमी अंदर तक पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्जा जमा लिया था। 3 मई को भारत को इस साज़िश का पहला संकेत मिला और इसके बाद 15 मई से भारतीय सेना ने जवाबी ऑपरेशन शुरू किए।
शुरुआत में अमेरिका ने इस संघर्ष को ‘सीमित क्षेत्रीय विवाद’ बताया। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जेम्स रुबिन ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की। उस समय तक अमेरिका पाकिस्तानी दावे को सच मानता रहा कि यह ‘कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानियों’ का मामला है।
लेकिन जैसे ही भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों के शव, हथियार और दस्तावेज सार्वजनिक किए, अमेरिकी रुख बदलने लगा। 6 जून को क्लिंटन ने पहली बार सार्वजनिक रूप से माना कि घुसपैठ के पीछे पाकिस्तान की सेना है। यह बयान भारत के लिए कूटनीतिक जीत थी।
अमेरिका ने क्यों नहीं दी भारत को मदद?
कारगिल युद्ध के चरम पर, जब भारत को सटीक बमबारी और सटीक दिशानिर्देशन की ज़रूरत थी, तब अमेरिका ने भारत को लेज़र-गाइडेड बम और GPS तकनीक देने से इनकार कर दिया। भारत ने यह तकनीक मुफ्त नहीं, बल्कि भुगतान कर खरीदना चाहा था, फिर भी अमेरिकी कांग्रेस में पारित ग्लेन संशोधन (1994) बाधा बना।
इस संशोधन के तहत परमाणु परीक्षण करने वाले देशों को अमेरिका से रक्षा उपकरण और तकनीक नहीं मिल सकती थी। भारत ने 1998 में पोखरण-2 परीक्षण किया था, जिससे उस पर यह प्रतिबंध लागू हो गया था।
जब अमेरिका पीछे हटा, इजराइल ने मोर्चा संभाला
भारत पहले ही इजराइल के साथ टारगेटिंग पॉड्स की डील कर चुका था। युद्ध शुरू होते ही इजराइल ने Lightning targeting pods की आपूर्ति शुरू की, जिनका इस्तेमाल Mirage 2000 विमानों पर किया गया। साथ ही, इजराइल ने Paveway-II लेज़र गाइडेड बम और रियल टाइम इमेजरी देने वाले सर्चर व हेरोन ड्रोन्स की आपूर्ति भी की।
इजराइली सैटेलाइट इमेजिंग ने टाइगर हिल, तोलोलिंग और पॉइंट 4875 जैसे रणनीतिक ठिकानों की सटीक तस्वीरें दीं, जिससे भारतीय वायुसेना और थलसेना ने सटीक हमला किया।
इसके अलावा, इजराइल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज (IAI) के विशेषज्ञों ने Mirage 2000 के सॉफ़्टवेयर को तुरंत अपडेट किया ताकि नई हथियार प्रणालियों के साथ समन्वय हो सके। मोर्टार और भारी गोला-बारूद की खेप भी युद्ध के अंतिम चरणों में भारत पहुंचाई गई।
क्लिंटन की फटकार और पाकिस्तान की वापसी
4 जुलाई 1999 को नवाज शरीफ और बिल क्लिंटन के बीच वॉशिंगटन में एक बेहद तनावपूर्ण बैठक हुई। क्लिंटन ने स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान को भारतीय सीमा से पीछे हटना होगा। कोई और रास्ता नहीं है। पाकिस्तान को वैश्विक मंच पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ी, और अंततः 11 जुलाई से उसकी सेना ने वापसी शुरू कर दी।
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